हिंसा का प्रदर्शन


नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के विरोध की आग में देश के कई इलाके जिस तरह से जल उठे हैं, वह विचलित करने वाला है। शायद ही कोई राज्य बचा हो जहां विरोध-प्रदर्शन ने हिंसक रूप धारण नहीं कर लिया हो। शुक्रवार को उत्तर प्रदेश के ज्यादातर शहरों में प्रदर्शनकारी बेकाबू हो गए, नागरिकता बेकाबू हो गए, नागरिकता कानून के विरोध में उतरी भीड़ हिंसक हो गई और उसमें छह लोगों की मौत हो गई। एक दिन पहले यानी गुरुवार को लखनऊ में ऐसा मंजर देखने को मिला। गुजरात के अमदाबाद, बनासकांठा सहित कई शहरों में गुरुवार को लोगों का गुस्सा सबसे ज्यादा पुलिस पर उतरा। इस तरह के दंगे जैसे हालात और पुलिस पर हमले सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति लोगों के गुस्से की अभिव्यक्ति हैं। जाहिर है, नागरिकता संशोधन कानून को लेकर लोग भारी गुस्से में हैं। ऐसे में जिस तरह के हालात के बनते जा रहे हैं, वे पुलिस, खुफिया और सुरक्षा एजंसियों के लिए बड़ी नाकामी को भी बता रहे हैं। लेकिन इन विरोध-प्रदर्शनों ने जिस तरह का हिंसक रूप धारण कर लिया है और लोग कानून हाथ में लेने से जरा नहीं हिचक रहे हैं, वह कहीं ज्यादा गंभीर बात है। लोकतंत्र में विरोध दर्ज कराना और प्रदर्शनों के जरिए इसे व्यक्त करना हर नागरिक का अधिकार है। पर प्रदर्शन की आड़ में हिंसा, पथराव, आगजनी जैसी घटनाओं को किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता। तोड़फोड़ और आगजनी जैसी घटनाओं से कुछ भी हासिल नहीं होता और यह सिर्फ गुस्सा जाहिर करने का गलत तरीका है। इससे सिर्फ सरकारी और निजी संपत्ति का ही नुकसान होता है। पर आक्रोश के दौरान हम इस बात को भूल जाते हैं। हालांकि यह हकीकत है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन तभी उग्र होते हैं जब किसी भी पक्ष की ओर से कोई उकसावे वाली कार्रवाई हो। जैसे ही एक पक्ष का संयम टूटता है, हालात बेकाबू होते जरा देर नहीं लगती। अक्सर ऐसी नौबत तब आती है जब प्रदर्शनकारियों के बीच शरारती तत्त्व घस आते हैं, जिनका मकसद ऐसे जायज विरोध-प्रदर्शनों के उद्देश्य को विफल करना होता है और नतीजा यह होता है कि पूरा प्रदर्शन हिंसक हो उठता है। ऐसे में पुलिस अगर पुलिस भी संयम और समझ से काम नहीं लेती तो उसका नतीजा वही होता है जो हाल में दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हुआ। हालांकि बाद में पुलिस ने स्वीकार भी किया कि जामिया की हिंसा में कोई छात्र नहीं था, बल्कि कुछ शरारती तत्वों ने यहां हिंसा फैलाई। इसी तरह गुरुवार को पश्चिम बंगाल में एक जगह प्रदर्शन के दौरान हिंसा फैलाने वाली भीड़ में कुछ लोग ऐसे भी निकले जिन्होंने एक समुदाय विशेष के प्रतीक माने जाने वाले वस्त्र पहन कर इसे अंजाम दिया और बाद में जांच में यह सामने आया कि ये लोग एक राजनीतिक दल विशेष से जुड़े थे। अगर पुलिस और खुफिया तंत्र चौकस और जिम्मेदार व ईमानदार हों तो शरारती तत्त्वों की पहचान कर उन्हें पहले से ही हिरासत में लिया जा सकता है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। हिंसा भड़कने के बाद आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति आग में घी का काम करती है। लेकिन हमारे राजनीतिक दलों के लिए यही लाभकारी होता है। इस बात से हर कोई सहमत है कि किसी भी प्रदर्शन के दौरान हिंसा का कोई स्थान नहीं है। जिस भारत ने हमेशा से अहिंसा का पाठ पढ़ा है, उस देश में अगर ऐसी हिंसा भड़क उठती है तो यह अफसोस की बात है।