नफरत का हमला


पाकिस्तान में बीते शुक्रवार को सिखों के पवित्र तीर्थ ननकाना साहिब की घेरेबंदी और पथराव की घटना ने न केवल पाकिस्तान और भारत बल्कि पूरी दुनिया के सिखों का ध्यान खींचा। पथराव के पीछे एक सिख लड़की के कथित अपहरण और जबरन धर्मांतरण के बाद शादी का मामला है, जिसमें एक व्यक्ति की गिरफ्तारी के बाद संबंधित परिवार ने ननकाना साहिब पर धरना दिया। भीड़ द्वारा पथराव की घटना वहां इसी दौरान हुई। इस प्रकरण ने पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की दुर्दशा को एक बार फिर रेखांकित किया है। पाकिस्तान सरकार अन्य देशों, खासकर भारत में अल्पसंख्यकों की असुरक्षा को लेकर जितनी चिंता आजकल दिखा रही है, उसे ध्यान में रखते हुए यह घटना और महत्वपूर्ण हो जाती है। पाक प्रधानमंत्री इमरान खान ने शुक्रवार को ही उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समाज के लोगों की स्थिति पर चिंता जताते हुए एक विडियो ट्वीट किया, जो बांग्लादेश का था। बहरहाल, ननकाना साहिब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का एक छोटा सा शहर है जिसकी आबादी करीब 80,000 है। जिला मुख्यालय भी यह 2005 में बना है। संख्या और आर्थिक व सामाजिक हैसियत के लिहाज से सिख पाकिस्तान में हाशिये पर हैं। जाहिर है, सिखों के इस धर्मस्थान की यहां के ज्यादातर स्थानीय निवासियों की नजर में कोई खास अहमियत नहीं हैऐसे में पिछले साल पाकिस्तान सरकार ने करतारपुर कॉरिडोर के जरिए भारतीय सिख श्रद्धालुओं को वहां आने की इजाजत देकर अचानक इस शहर का दर्जा काफी ऊंचा कर दिया। इसके पीछे इमरान सरकार की सोच चाहे जो भी रही हो, इलाके के आम लोग इस बात को पॉजिटिव ढंग से लें, यह सुनिश्चित करने की कोई ठोस कोशिश वहां शायद ही हो पाई है। पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथ की मजबूत स्थिति को देखते हुए यह संभावना कम है कि किसी भी क्षेत्र की ज्यादातर आबादी किसी अल्पसंख्यक समुदाय की सामाजिक स्थिति में अचानक आई बेहतरी को सहजता से ले सकेगी। ननकाना साहिब जैसे दूरदराज इलाके का तो कहना ही क्या। ऐसे में बहुसंख्यक प्रतिक्रिया का इलाज क्या है, सिवाय इसके कि वहां लोगों को अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु बनाया जाए, उन्हें धार्मिक कट्टरता के जाल से मुक्त करने का प्रयास किया जाए। जाहिर है, यह काम पाकिस्तान की सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों को ही करना है। वहां के रौशन ख्याल लोग इसके लिए आगे आ सकते हैं और एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष पड़ोसी देश के रूप में हम उन्हें अपना वैचारिक और नैतिक समर्थन दे सकते हैं, उनका मनोबल बढ़ा सकते हैं। जो लोग इस संदर्भ में नागरिकता संशोधन कानून का हवाला दे रहे हैं, उन्हें समझना होगा कि ऐसे पीड़ित मजबूरी में इधर आएं वह अलग बात है, लेकिन अगर वे हमारे बुलाने पर भारत आते हैं तो उन्हें इज्जत की जिंदगी हम नहीं दे पाएंगे। ऐसे सभी समुदायों को अपनी लड़ाई अपनी जमीन पर लड़नी होती है और बहुसंख्यकों के साथ मिलकर लड़नी होती है।