अदालत की इस सख्ती के बाद कई कंपनियों ने अपना बकाया भुगतान कर देने का भरोसा दिलाया है। अगर कंपनियां यह कदम पहले ही उठा लेतीं तो क्यों इतना विवाद मचता! यह ठीक है कि कंपनियों के सामने मुश्किलें कम नहीं हैं, लेकिन अब भी तो कंपनियां इसके लिए राजी हुईं।', दूरसंचार कंपनियों पर बकाया लिए राजी हुईं।', दूरसंचार कंपनियों पर बकाया रकम की वसूली के मामले में रकम की वसूली के मामले में सरकार और कंपनियों का जो रवैया देखने को मिला है, उस पर सुप्रीम कोर्ट का नाराज होना स्वाभाविक है। सर्वोच्च अदालत ने पिछले साल 24 अक्तूबर को आदेश जारी कर दूरसंचार कंपनियों को समायोजित सकल राजस्व (एजीआर) का बकाया पैसा तीन महीने के भीतर जमा करने का निर्देश दिया था। यह रकम कुल मिला कर 1.47 लाख करोड़ रुपए है, जिसमें लाइसेंस फीस और स्पैक्ट्रम उपयोग शुल्क और कॉल-सेवा के अलावा अन्य स्रोतों से होने वाली आय शामिल हैं। जब सर्वोच्च अदालत का फैसला आया था, तब दूरसंचार कंपनियों ने हाथ खड़े कर दिए थे और अदालत से गुहार लगाई कि उनका पक्ष सुना जाए और बकाया भुगतान के लिए समय दिया जाए। अदालत का यह फैसला दरसंचार कंपनियों पर किसी गाज से कम नहीं था। हालांकि तब सरकार ने दूरसंचार कंपनियों के प्रति दरियादिली दिखाते हुए फौरी राहत के तौर पर बकाया राशि दो साल के भीतर किश्तों में जमा कराने की छूट दी थी। सरकार भी इस संकट को समझ रही है। इसलिए अदालत के सख्त रुख को देखते हुए वह अब उचित समाधान तलाशने में जुट गई है। लेकिन मामला तब और बिगड़ गया जब 23 जनवरी को दूरसंचार विभाग ने बकाया भुगतान नहीं करने वाली कंपनियों के खिलाफ ज्यादा सख्ती नहीं दिखाने का आदेश जारी कर दिया। इस आदेश से यह संदेश गया कि सरकार दुरसंचार कंपनियों को कहीं न कहीं बचाने में लगी है। सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश की पालना का। अगर सरकार के महकमे ही सर्वोच्च अदालत के आदेशों की अवहेलना करेंगे तो फिर उसके फैसले का मतलब ही क्या रह जाएगा। अदालत की इस सख्ती के बाद कई कंपनियों ने अपना बकाया भुगतान कर देने का भरोसा दिलाया है। अगर कंपनियां यह कदम पहले ही उठा लेतीं तो क्यों इतना विवाद मचता! यह ठीक है कि कंपनियों के सामने मुश्किलें कम नहीं हैं, लेकिन अब भी तो कंपनियां इसके लिए राजी हुईं। इसमें कोई दो राय नहीं कि दूरसंचार क्षेत्र के समक्ष यह कोई मामूली नहीं संकट नहीं है। हालांकि इस संकट के लिए सरकार और दूरसंचार कंपनियां दोनों ही जिम्मेदार हैं, जिन्होंने बातचीत के जरिए किसी समाधान पर पहुंचने के बजाय अदालत का रास्ता चुना, शायद इसलिए कि दोनों को अपनी-अपनी जीत की उम्मीद थी। एजीआर को लेकर यह विवाद कोई पंद्रह साल से चल रहा है। लेकिन मामला अदालत में खिंचता रहा और कंपनियां मुनाफा कमाती रहीं। यह तो साफ है कि कंपनियों से पैसे की वसूली हो जाएगी। कई छोटी कंपनियों के सामने कारोबार समेटने की नौबत आ सकती है। वोडाफोन-आइडिया पर संकट सबसे ज्यादा है, जिस पर पचास हजार करोड़ के करीब बकाया है। भारती एअरटेल को पैंतीस हजार सात सौ करोड़ के करीब और टाटा टेली सर्विसेज करीब चौहद हजार करोड़ चुकाने हैं। रिलायंस जियो अपने साठ करोड़ पहले ही दे चुकी है। अब होगा ये कि तीस करोड़ उपभोक्ताओं वाली वोडाफोन कारोबार समेटने को मजबूर हो सकती है। तब बाजार में निजी क्षेत्र की दो बड़ी कंपनियां रिलांयस जियो और भारती एअरटेल ही रह जाएंगी। सरकारी कंपनी बीएसएनएल का हाल किसी से छिपा नहीं है। इसका असर यह भी होगा कि कंपनियां 5जी सेवाओं के लिए निवेश करने से तो बचेंगी ही, साथ ही फोन सेवाएं भी खासी महंगी हो जाएंगी और पैसा आम लोगों की जेब से ही निकलेगा। उपभोक्ताओं पर पड़ने वाला यह बोझ क्या कम बड़ा संकट है!
दूरसंचार का संकट